• Amritvani Lyrics

    Amritvani Lyrics

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    1. Sai Amritvani Lyrics In Telugu
    2. Shiv Amritvani Lyrics

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    अर्थ: कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते? –33– आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत । अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।। अर्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं। –34– रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥ अर्थ: रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा?

    एक कौड़ी – –35– बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ अर्थ: खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं। –36– हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह। सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥ अर्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है.सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है. निर्मम मन इस भावना को क्या जाने?

    –37– झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह। माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥ अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा. –38– कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन। कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥ अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है. –39– कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण। कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण॥ अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे.

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    इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा. –40– झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह। माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥ अर्थ: थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है. चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए.

    –41– इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह। राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥ अर्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा. हे छत्रपतियों!

    तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते! –42– कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव। सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥ अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता. –43– मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह। ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह॥ अर्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है. –44– जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ। खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥ अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो. तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो. यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे.

    Sai Amritvani Lyrics In Telugu

    –45– मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार। तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥ अर्थ: मानव जन्म पाना कठिन है. यह शरीर बार-बार नहीं मिलता. जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता. –46– यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ। ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥ अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया.

    Shiv Amritvani Lyrics

    कुछ भी हाथ नहीं आया. –47– मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि। कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥ अर्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है. हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ.

    मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ? –48– कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई । अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥ अर्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा – जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते!

    –49– जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम। ते नर या संसार में, उपजी भए बेकाम ॥ अर्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की सार्थकता है. प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है. –50– लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार। कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥ अर्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं.

    कहो, भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं –51– इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव। लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव॥ अर्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है!

    –52– नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ। ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ॥ अर्थ: हे प्रिय! ( प्रभु ) तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं! –53– कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई। नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ॥ अर्थ: कबीर कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता. जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है?

    –54– कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास । समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥ अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है. स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है. हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है. –55– सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग । ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥ अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं. हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता! जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह इस संसार में होता है! –56– कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास । काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥ अर्थ: कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो?

    कल या परसों ये ऊंचाइयां और (आप भी) धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है!

    इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए –57– जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि । जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥ अर्थ: जन्म और मरण का विचार करके, बुरे कर्मों को छोड़ दे. जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना – –58– बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत । आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ॥ अर्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया. कुछ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो! जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है – उसे खबर भी नहीं लगती – नुक्सान हो चुका होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच सकते हैं! इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को -( जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर – अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत! –59– कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार । करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ॥ अर्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – (अर्थात शरीर का अंग अंग )- शैवाल अर्थात काई में बदल गई.

    इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो –60– कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि । दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥ अर्थ: यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं.यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा. शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है – अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते! –61– कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि । नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥ अर्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो!

    जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो! –62– हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि । आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि॥ अर्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं. इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं. –63– तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ । मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥ अर्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है. सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता.

    अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है!

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